सामाजिक विघटन : एक ज्वलंत समस्या
सदियों से एक स्वर्णिम संस्कृत का साक्षी रहा है अपना प्यारा भारतवर्ष। सामाजिक मूल्यों का एक अप्रतिम उदाहरण रहा है यह भारतभूमि। आज पश्चिमी सभ्यता के चकाचौंध में युवा एव समाज के अन्य वर्गो में जो विसंगतियाँ देखने को मिल रही है ,उसको देखने सुनने के बाद दुःख होता है। इतिहास गवाह के पूर्व में जो भी समाज अपने मूल आदर्शो को भूल जाता है उसका पतन भी निश्चित है। यदि हम ध्यान से देखेंगे तो इक्कीसवीं सदी के दौर में भारत में भी सामाजिक समस्याएँ अपने पराकाष्ठा पर थी। नित नयी हिंसक घटनाये यह दर्शाती है कि व्यक्ति एव राष्ट्र को सामाजिक मूल्यों को सवारने , सहेरने की जरुरत है।
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